मृगतृष्णा

कभी ख़त्म ना होनेवाला रेगिस्तान हो जैसे
अक्सर हमे जीवन के पल प्रतीत होते है ऐसे
उँचे तूफ़ानो के बवंडर ,दिल को झेले ना जाए
पराकाष्ठा हो प्रयत्नो की,पर वो थम ना पाए

रेत के नन्हे से कन हवाओ में उड़ते रहते है
हाथों पर ,पैरो पर,गालों पर ,होठों और नयनो पे
एक जुट होकर,सिमटकर, चिपक के बैठे रहते है
कोलाहल,अंतरंग शोर, मचा देते है छोटे से मन में

मन के पूरे बल से तूफ़ानो का सामना करना
अपनी दिशा कौनसी,किस और ये ग्यात करना
रेत के टीलो को बनाकर सहारा कभी लेना आराम
नयी उमीद की किरण दिखला जाए जरा सा विराम

चलते रहना हमेशा उस चमकीली ज़मीन की और
मृगतृष्णा हरा चाहे हो धोखा मगर जगाता एक आस
बरसात होगी तपती रेत पर , स्वप्न नज़र आए साथ
मंज़िल तक पहुँच जाएँगे,बुझेगी तकलीफ़ों की प्यास .

http://merekavimitra.blogspot.com/2008/02/blog-post_7282.html#mahak