निकली हूँ आज,खोजने कुछ जवाब
सुलझानी है कुछ उलझाने
क्या बदली जा सकती है हाथों की लकीरें
या वही होता है जो लिखा हो तकदीर में
क्या मोड़ सकते है हम ज़िंदगी की राहे
शायद हा,कभी कभी,अगर है उम्मीद
नाकामयाबी के बाद ही,तो आती है जीत
कहना कितना आसान,मुश्किल जाना उस पार
पर सुना है कोशिश करनेवालों की नही होती हार
थक जाती हूँ मैं भी कभी,तब लगता सब है असत्य
जीवन मृत्यु का ये चक्र ही,अपना है अंतिम सत्य
satya
नवम्बर 29, 2007 at 10:11 पूर्वाह्न (satya)
Tags: hindi poem, jeevan, kavita, khoj, sach, satya, shayari