अमर शहिद-एक सलामी
बरस पर बरस बीत गये
गाँव की मिट्टी को छुए
जब से सैनिक का ध्ररा भेष
अपना गाँव है सारा देश
कभी ठंड में ठिठुरते सिकुड़ते
कभी महीनो सागर में तैरते
कभी घने जंगल में भटकते
रक्षा का फ़र्ज़ निभाते रहते
एक बार जो ठान लेते
पीछे मुड़कर नही देखते
आगे आगे बढ़ते जाते
कदम से कदम मिलाकर चलते
जी जान से जंग लढ़े है
कोई गीला शिकायत ना करे है
दुश्मन पर टूट पड़े है
खुदकी भी परवा ना करे है
घर की याद उन्हे भी आती होगी
उनकी आँखे भी नम होती होगी
दो पल उन यादो को संजोकर
नयन पोंछ मुस्कुरा पड़े है
दुश्मन की गोली सिने पर खाई
कतरा कतरा लहू है बहता
आखरी लम्हो में भी कहता
विजयी हो मेरी भारत माता
उनके लिए हमारे नयन भरे है
देश के लिए जो दीवाने हुए है
उन्हे हाथ हमारे,सलामी करते
जिनकी वजह से हम महफूज़ रहते
भारत मा का भी हृदय हिलता है
जब उसका कोई बेटा गिरता है
मर कर भी जो अमर रहता है
ज़माना उन्हे शहिद कहता है.