धूप का रेशमी टुकड़ा

धूप का रेशमी टुकड़ा

दिन की पहली प्रहर में
कोई दस्तक सुनाई दी
झरोखे से देखा  छुपकर
वो खड़ा था मेरी दहलीज़ पर
सोने सी चमकती काया
मुखड़े पर अरुनिम तेज
धूप का रेशमी टुकड़ा
सरक सरक के आगे बढ़ रहा था

जैसे अपने लिये कोई जगह तलाश रहा हो
कर रहा था इंतज़ार शायद
किवाडो के खुलने का
अंधेरो को उजागर करने का
निशा को आशा में बदलने का
अपने मृग नयनो से
 कुछ खोजता नज़र आया

छिपा ना पाई खुद को ज़्यादा देर
मुझे देख वो मंद मंद मुस्काया
सुनहरे धुलिका के कन उसके
और ही जगमगा उठे
आने दोगी भीतर मुझे
एक टक देख बतिआया
किस राह से आउ
झरोखे से छन छन कर
या खोल रही हो किवाडो के ताले
एक साथ की कह दूँगा सारे ज़ज्बात
जो नाज़ो से दिल में पले

ले रही थी उसकी बातों का अंदाज़
कितनी सच है,कुछ तो हो आगाज़
हां मोह लिया मेरे मंन को 
जन्मो  के रिश्ते का
कर गया प्रण वो
जागृत हुई नयी अभिलाषा
बन जाउ धूप की छाया
खोल दिये सारे बंधन
खुद को उसकी आगोश में पाया

उसने अपना वादा बखूबी निभाया
ले जाता है मुझे संग अपने
जिस राह भी चलता है
मैं शामल हूँ,वो पीताम्बर
ऐसा ही संसार बसाया
और तब से अब तक
दिल में टिमटिमाती  रहती है सदा
उसकी मोहोब्बत की गुनगुनी रौशनी |